ध्यान और मन की स्थिरता
Meditation and Stability of the Mind
स्थिर और एकाग्र मन के लाभों का वर्णन शास्त्रों में कई जगहों पर बताया गया है:-
ऋग्वेद में कहा गया है – “हे मनुष्य! यदि तू मन को स्थिर करने में समर्थ हो जाए तो तू स्वयं ही समस्त बाधाओं और विपत्तियों पर विजय पा सकता है।”
गीता (अध्याय ३ – श्लोक ६) – ”जो मनुष्य कर्म इन्द्रियों (हाथ पैर आदि) को रोककर मन से विषयों का चिन्तन करता है, उसे मिथ्याचारी तथा दम्भी कहते हैं।”
भागवत में जड़भरत ने कहा है की “विषय से आसक्त मन जीव को संसार संकट में डालत़ा है, और विषयहीन होने पर वही उसे शांतिमय मोक्ष पद को प्राप्त करा देता है।”
कठोपनिषद् में यम नचिकेता से कहते है – “जिसके मन और इन्द्रियॉ संयमित नहीं है, जिसका मन चंचल है, वह परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।”
ध्यान से मन की स्थिरता
मन की स्थिरता, एकाग्रता और पवित्रता के लिए श्वास प्रश्वास ध्यान सरलतम साधना है क्योंकि इसमें केवल श्वास और प्रश्वास की गति को देखना मात्र है।
- श्वास – सांस लेना, inhalation
- प्रश्वास – साँस छोड़ना, exhalation
निर्देशित विधि द्वारा अभ्यास करने पर श्वास की गति धीरे-धीरे बहुत ही धीमी हो जाती है। कभी कभी ऐसा अनुभव होता है जैसे श्वास बंद होने जा रही हैं अथवा हो रही है। कुम्भक जैसी स्थिति भी हो सकती है। यह सफलता के लक्षण है।
किसी के स्वभाव को बदलना कठिन कार्य है। चंचलता मन का सहज स्वभाव है। इधर-उधर भागने में उसे आनन्द आता है। मन जब तक विषयों में लिप्त रहता है, तब तक उसकी चंचलता में गति रहती है। परन्तु संयम का अभ्यास करने पर वह धीरे-धीरे स्थिर होने लगता है।
साधक जब और आगे बढ़ता है तो मन का ठहराव होने लगता है। ऐसा अनुभव होता है जैसे मन का लय हो गया है मन रहा ही नहीं। यह स्थिति आने पर मन गहरे में प्रवेश करता है और शांति के समुद्र में गोते लगाने लगता है।
भौतिक सुख दुःख उसे प्रभावित नहीं करते। वह हर स्थिति में पर्वत की तरह अडिग और स्थिर रहता है। सांसारिक परिस्थितियाँ उसे अशांत नहीं कर सकतीं।
शांत और स्थिर मन के फायदे
ध्यान से साधक के सभी बन्धन टूट जाते हैं। इसलिए यदि उसे स्थितप्रज्ञ कह दे तो अनुचित न होगा। वह इसी जीवन में मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। उसका शांत मन यह सिद्ध करंता हैं कि उसके जीवन की सभी समस्याओं का समाधान हो गया है।
जीवन उसके सामने कोई समस्या प्रस्तुत नहीं करता। हर क्षण आनंद का क्षण रहता है।
शंकरजी ने लोक कल्याण के लिए हलाहल विष का पान किया परन्तु वह कुछ भी दुःखी, चिन्तित और खिन्न नहीं हुए। उन्होंने इसे प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण किया। मीरा को विष दिया गया तो वह अमृत समझकर पी गई।
विषम परिस्थितियां हर एक के जीवन में आती है, परन्तु जिस साधक ने ध्यान द्वारा मन को एकाग्र, स्थिर और शांत करके उस पर विजय प्राप्त कर ली है, वह उसे भगवान का अनुग्रह समझकर प्रसन्नता पूर्वक वरण करता है।
जो साधक हर स्थिति में एक रस रह पाता है, समझना चाहिए कि उसी ने मनको जीत लिया है।
मन व्यक्ति को विषयों की ओर नहीं ले जा सकता, परन्तु साधक के निर्देशानुसार एक कर्मचारी की तरह आज्ञा का पालन करता हे। वह मानसिक शक्तियों का असाधारण विकास करके आत्मोत्थान की उच्चतम स्थिति तक पहुंच सकता हैं।
उसके लिए इस जीवन में कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। वह मुक्त जीवन व्यतीत करता है। ध्यान करने वाले साधक के लिए यह असम्भव नहीं, सहज है।